एका यक्षा कडूनी घडला आत्म्कार्यात दोष
वर्शान्त स्त्री वीरह जड़ दे शाप त्याला धनेश
त्याने लुप्तप्रभ वसत तो राम्गीर्याश्रमात
सीतास्नाने उदक जीथले पूत झआडी निवांत ||१||
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प्रेमी कांता विराही अचली घालवी मास काही
गेले खाली सरुनी वलय स्वर्ण हस्ती न रही
आशाढाच्या प्रथम दिनी तो मेघ शैलाग्री पाहे
दंताघाते तटी गज कुणी भव्यसा खेलताहे ||२||
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Monday, July 21, 2008
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